ख़मोश जादा-ए-इंकार भी है सहरा भी अज़ा में पा-ए-जुनूँ बार भी है सहरा भी कहीं भी जाएँ लहू को तो सिर्फ़ होना है कि तिश्ना कूचा-ए-दिलदार भी है सहरा भी मता-ए-ज़ीस्त ख़रीदें कि तेरी सम्त बढ़ें हमारे सामने बाज़ार भी है सहरा भी मुझे तो सारी हदों से गुरेज़ करना है मिरा हरीफ़ तो घर-बार भी है सहरा भी यहीं ये धूल यहीं ख़ुशबुएँ भी उड़ती हैं ये दिल कि ख़ित्ता-ए-गुलज़ार भी है सहरा भी न छोड़ता है न ज़ंजीर कर के रखता है तिरा ख़याल कि दीवार भी है सहरा भी ये क्या जगह है जहाँ दोनों वक़्त मिलते हैं यहाँ दरख़्त समर-बार भी है सहरा भी ज़रा सी चूक से पाँसा पलट भी सकता है कि अक़्ल शहर-ए-फ़ुसूँ-कार भी है सहरा भी