ख़ामोशी तक तो एक सदा ले गई मुझे फिर उस से आगे तब-ए-रसा ले गई मुझे क्या आँख थी कि मौज-ए-बक़ा की तरह मिली क्या मौज थी कि मिस्ल-ए-फ़ना ले गई मुझे मिट्टी को चूम लेने की हसरत ही रह गई टूटा जो शाख़ से तो हवा ले गई मुझे दश्त-ए-जुनूँ से आई थी बस्ती में बाद-ए-शौक़ लौटी तो अपने साथ बहा ले गई मुझे ऐ जुरअत-ए-फ़रार तिरा शुक्रिया कि तू रिश्तों के पेच-ओ-ख़म से बचा ले गई मुझे