ख़मोश झील में गिर्दाब देख लेते हैं समुंदरों को भी पायाब देख लेते हैं ज़रा जो अज़्मत-ए-रफ़्ता पे हर्फ़ आने लगे तो इक बची हुई मेहराब देख लेते हैं उचटती नींद से हासिल भी और क्या होगा कटे फटे हुए कुछ ख़्वाब देख लेते हैं हमें भी जुरअत-ए-गुफ़्तार होने लगती है जो उन के लहजे को शादाब देख लेते हैं सफ़र का अज़्म तो बाक़ी नहीं रहा 'राशिद' बस अब बंधा हुआ अस्बाब देख लेते हैं