ख़मोशियों में तमाशा अदा निकलती है निगाह दिल से तिरे सुर्मा-सा निकलती है फ़शार-ए-तंगी-ए-ख़ल्वत से बनती है शबनम सबा जो ग़ुंचे के पर्दे में जा निकलती है न पूछ सीना-ए-आशिक़ से आब-ए-तेग़-ए-निगाह कि ज़ख्म-ए-रौज़न-ए-दर से हवा निकलती है ब-रंग-ए-शीशा हूँ यक-गोश-ए-दिल-ए-ख़ाली कभी परी मिरी ख़ल्वत में आ निकलती है