ख़ामुशी से निकलती बात का दुख जानता हूँ तुम्हारी ज़ात का दुख नीम-शब की ख़मोशी और ग़म-ए-दिल नोच लेता है आँख रात का दुख बस मैं शिकवा-कुनाँ नहीं तुझ से मुझ को वैसे है तेरी बात का दुख हार कर भी मैं जीत जाऊँगा बस कभू हो जो तुझ को मात का दुख तुम ने जीना है मैं ने जीना है जाँ निकालेगा ये हयात का दुख मेरे जीने पे भी न राज़ी था तुझ को होना था क्या वफ़ात का दुख दोस्त ग़मगीं न हों मिरे 'हमज़ा' पाल लूँगा मैं पाँच सात का दुख