ख़ून की एक नदी और बहेगी शायद By Ghazal << हुसूल-ए-रिज़्क़ के अरमाँ ... क्यों तीरगी पे तुम को गुम... >> ख़ून की एक नदी और बहेगी शायद जंग जारी है तो जारी ही रहेगी शायद हाकिम-ए-वक़्त से बेज़ार ये जागी मख़्लूक़ जब्र-ओ-बेदाद को अब के न सहेगी शायद बढ़ के इस धुँद से टकराती हुई तेज़ हुआ तेरे मिलने की कोई बात कहेगी शायद Share on: