ख़ाना-ब-दोश रहने की आदत नहीं गई इंसाँ के दिल से ख़्वाहिश-ए-हिजरत नहीं गई दर दर की ख़ाक छान रहे हैं अभी तलक दिल से हयात-आश्ना वहशत नहीं गई कुछ पुर-ख़ुलूस दोस्त मयस्सर हैं इस लिए आँखों से ख़ुश-गुमानी की आदत नहीं गई जब तक नफ़स में सब्र-ओ-क़नाअत थे ख़ेमा-ज़न घर से हमारे रिज़्क़ की बरकत नहीं गई लम्हा-ब-लम्हा टूटते रहने के बावजूद कोहसार-ए-ख़ुश-जमाल की रिफ़अत नहीं गई सद-शुक्र सुन रहा हूँ मैं अब भी सदा-ए-वक़्त इस शोर में भी मेरी समाअ'त नहीं गई मुरझा गया किताब में रक्खा हुआ ये फूल लेकिन हनूज़ इस की लताफ़त नहीं गई दामान-ए-चश्म-ए-शौक़ लहू से है तर-ब-तर आँखों से फिर भी ख़्वाब की चाहत नहीं गई पगड़ी बता रही है कि सर पर ग़ुरूर से कोताह-क़ामती की अलामत नहीं गई उस को ज़मीं भी चाहिए वो भी कफ़न के साथ मर कर भी आदमी की ज़रूरत नहीं गई इस बार सैल-ए-अश्क-ए-नदामत के साथ 'राज़' आँखों से रौशनी-ए-नदामत नहीं गई