किया था ज़ब्त का दावा मगर निभा न सके हम अपने दिल की लगी दिल-लगी बना न सके पहुँच के बज़्म में यूँ रोए हम कि गा न सके ग़ज़ल तो ले के गए थे मगर सुना न सके वो लम्बी डालियाँ सरसों की फूल सरसों के जब आए गाँव से बरसों उन्हें भुला न सके किसी की बज़्म का मंज़र जो देख आई हूँ उन्हें मैं कैसे दिखाऊँ जो लोग जा न सके न हँसिए हम पे कि हम तो हैं चोट खाए हुए उन्हीं पे रोइए जो लोग चोट खा न सके अजीब हुस्न है तेरा कि हम तिरी तस्वीर बनाना चाह रहे थे मगर बना न सके वो एक सुब्ह को आई थी रतजगों के बाद फिर उस के बाद कोई रतजगा मना न सके जब उस ने पूछा कि कैसा मिज़ाज है 'अंजुम' जिगर में दर्द वो उट्ठा कि हम बता न सके