ख़राब-ए-इश्क़ सही आलम-ए-शुहूद में हूँ हूँ अश्क अश्क मगर अपने ही वजूद में हूँ किसी ने नग़्मों में तहलील कर दिया है मुझे न गुनगुनाओ कि मैं पर्दा-ए-सुरूद में हूँ तू अपनी ज़ात से मुझ को अलग न जान कि मैं तिरे जमाल की निकहत के तार-ओ-पूद में हूँ हज़ार रंग में देखा है मुझ को दुनिया ने अज़ल से ता-ब-अबद नश्शा-ए-वरूद में हूँ ख़ुद अपनी ज़ात का इरफ़ाँ न हो सका मुझ को अभी मैं कश्मकश-ए-दाम-ए-हस्त-ओ-बूद में हूँ