ख़राब-ओ-ख़स्ता सही साएबाँ बनाया है मुज़ाफ़-ए-शहर में हम ने मकाँ बनाया है कभी रहा ही नहीं मौसमों से पैवस्ता नए मिज़ाज का इक गुलिस्ताँ बनाया है किसी के वास्ते फ़िरदौस है ये सय्यारा हमारे वास्ते आज़ार-ए-जाँ बनाया है हुदूद-ए-वक़्त में महदूद कर के इंसाँ को ख़ुद अपने वास्ते क्यूँ ला-मकाँ बनाया है गर इख़्तिलाफ़ था 'मंज़र' तो भी बयाँ करते ज़रा सी बात को क्यूँ दास्ताँ बनाया है