ख़स-ए-बदन में ब-रंग-ए-शरार आए कोई चमक उठूँ मैं ग़म-ए-आब-दार आए कोई मिरी नज़र में चमकते हैं गर्म-ओ-सर्द जहाँ मैं जाँच लूँगा ज़र-ए-कम-अयार आए कोई है ज़ख़्म ज़ख़्म बदन संग-ए-हर्फ़-ए-तल्ख़ से आज कहीं से नर्मी-ए-लब की फुवार आए कोई मैं जल गया दिल-ए-वीराँ की ख़ुश्क वादी में फ़राज़-ए-दर्द से फिर आबशार आए कोई ये दश्त-ए-तिश्ना-लबी छोड़ कर मैं क्यूँ जाऊँ मिरे लिए तो यहीं जू-ए-बार आए कोई है ज़ो'म-ए-शो'ला तो देखे हवा-ए-दर्द का ज़ोर चराग़ है तो सर-ए-रहगुज़ार आए कोई इक और भी है जहाँ इस जहान-ए-जब्र से दूर मजाल है तो वहाँ शहरयार आए कोई ग़नीम-ए-शब को मैं ज़ख़्मों से चूर कर आया सहर का आख़िरी नेज़ा भी मार आए कोई ठहर गए हैं कहाँ मेरे हम-सफ़र 'शाहीं' खड़ा हूँ देर से जंगल के पार आए कोई