मिरे पीछे ये तो मुहाल है कि ज़माना गर्म-ए-सफ़र न हो कि नहीं मिरा कोई नक़्श-ए-पा जो चिराग़-ए-राहगुज़र न हो रुख़-ए-तेग़ से जो न हो कभी सहर ऐसी कोई नहीं मिरी नहीं ऐसी एक भी शाम जो तह-ए-ज़ुल्फ़-ए-दार बसर न हो मिरे हाथ हैं तो लूँगा ख़ुद मैं अब अपना साक़ी-ए-मय-कदा ख़ुम-ए-ग़ैर से तो ख़ुदा करे लब-ए-जाम भी मिरा तर न हो मैं हज़ार शक्ल बदल चुका चमन-ए-जहाँ में सुन ऐ सबा कि जो फूल है तिरे हाथ में ये मिरा ही लख़्त-ए-जिगर न हो जिन्हें सब समझते हैं मेहर ओ मह न हों सिर्फ़ चंद नुक़ूश-ए-पा जिसे कहते हैं कुर्रा-ए-ज़मीं फ़क़त एक संग-ए-सफ़र न हो तिरे पा ज़मीं पे रुके रुके तिरा सर फ़लक पे झुका झुका कोई तुझ से भी है अज़ीम-तर यही वहम तुझ को मगर न हो शब-ए-ज़ुल्म नरग़ा-ए-राहज़न से पुकारता है कोई मुझे मैं फ़राज़-ए-दार से देख लूँ कहीं कारवान-ए-सहर न हो