ख़ता-ए-इश्क़ ये तस्लीम है कि हम से हुई ये जुरअत हम को मगर आप के करम से हुई जहान-ए-इश्क़ में अहल-ए-जुनूँ भी कम तो न थे हुई शनाख़्त इस अक़्लीम की तो हम से हुई क़तील-ए-इश्क़ किया फिर गले लगाए रहा कि इब्तिदा-ए-मोहब्बत भी इक सितम से हुई मुझे तो जानने वाले भी कम ही जानते हैं मिरी शनाख़्त सर-ए-मुल्क फ़न क़लम से हुई जो बहर-ए-इश्क़ में ग़र्क़ाब हो गए उन की ख़बर हुई है तो लहरों के ज़ेर-ओ-बम से हुई दिलों में इश्क़ की शम्ओं' की रौशनी दो-चंद अगर हुई है अयाँ आप ही के दम से हुई