ख़त्म हो जंग ख़राबे पे हुकूमत की जाए आख़िरी मारका-ए-सब्र है उजलत की जाए हम न ज़ंजीर के क़ाबिल हैं न जागीर के अहल हम से इंकार किया जाए न बैअत की जाए मम्लिकत और कोई ब'अद में अर्ज़ानी हो पहले मेरी ही ज़मीं मुझ को इनायत की जाए या किया जाए मुझे ख़ुश-नज़री से आज़ाद या इसी दश्त में पैदा कोई सूरत की जाए हम अबस देखते हैं ग़ुर्फ़ा-ए-ख़ाली की तरफ़ ये भी क्या कोई तमाशा है कि हैरत की जाए घर भी रहिए तो चले आते हैं मिलने को ग़ज़ाल काहे को बादिया-पैमाई की ज़हमत की जाए अपनी तहरीर तो जो कुछ है सो आईना है रम्ज़-ए-तहरीर मगर कैसे हिकायत की जाए