ख़ूब थी वो घड़ी कि जब दोनों थे इक हिसार में मैं था तिरे ख़ुमार में तू था मिरे ख़ुमार में नूर से मिरे इश्क़ के निखरे थे इस के ख़द्द-ओ-ख़ाल रंग था मिरे ख़्वाब का अक्स जमाल-ए-यार में गो थी कशिश हमारे बीच बारे बहम न हो सके मैं था अलग मदार में वो था अलग मदार में ख़्वाहिश-ए-वस्ल-ए-यार तो पूरी न हो सकी मगर दश्त-ए-हयात कट गया वहशत-ए-इंतिज़ार में मर्ज़ी से कब हुआ कोई इश्क़-ए-बुताँ में मुब्तला कौन ये रोग पालता होता जो इख़्तियार में नग़्मे ख़ुशी के किस तरह गाए वो बुलबुल-ए-नज़ार जिस का चमन उजड़ गया यारो भरी बहार में