ख़ूब थीं मय-कदे की फ़ज़ाएँ रह गईं छट के ग़म की घटाएँ मौत इमदाद को आ चुकी है उन से कह दो कि वो अब न आएँ शो'ला-ए-हुस्न से क्या बचेगा दामन-ए-दिल को हम क्या बचाएँ हश्र ढाती है जुम्बिश नज़र की फ़ित्ना-गर हैं किसी की अदाएँ सोचते हैं कि उस बेवफ़ा को याद रक्खें कि हम भूल जाएँ हादसात-ए-जहाँ तौबा तौबा उठ गईं हैं जहाँ से वफ़ाएँ दिल में आबाद है एक दुनिया आप महरूमियों पर न जाएँ गोशा-ए-दिल से 'परवेज़' अब तक आ रही हैं किसी की सदाएँ