ख़ुद को जिस के लिए भुलाती हूँ क्या उसे भी मैं याद आती हूँ उस का चेहरा किताब जैसा है रोज़ पढ़ती हूँ मुस्कुराती हूँ वैसे आँखें उदास रहती हैं देख कर उस को जगमगाती हूँ जानती हूँ हवा मिटा देगी मैं घरौंदे मगर बनाती हूँ घर की दीवार है सखी मेरी मैं उसी से गपें लड़ाती हूँ आप अख़बार देखिए तब तक मैं अभी चाय ले कर आती हूँ सामने अपने आइना रख कर रोज़ अपनी हँसी उड़ाती हूँ वो मिरा ए'तिबार है 'रख़्शाँ' जिस से अक्सर फ़रेब खाती हूँ