ख़ुद को कभी जो ख़ुद से मिलाना पड़ा हमें चेहरे के पास आईना लाना पड़ा हमें तन्हाइयों का दर्द भुलाने के वास्ते ख़ुद अपने घर में शोर मचाना पड़ा हमें मुद्दत के बाद हो गया जब उन से सामना नाकाम हसरतों को जगाना पड़ा हमें इस दश्त-ए-काएनात में जीने के वास्ते सोज़-ए-ग़म-ए-हयात भुलाना पड़ा हमें बन जाए फिर न एक तमाशा ये सोच कर दुनिया से अपना दर्द छुपाना पड़ा हमें कुछ तीरगी-पसंद कल आए थे इस लिए बस्ती का हर चराग़ बुझाना पड़ा हमें सूरज का ज़ुल्म और बढ़ेगा ये जब सुना आँगन में एक पेड़ लगाना पड़ा हमें ऐसा भी वक़्त आलम-ए-ग़ुर्बत में आ गया बच्चों को भूके पेट सुलाना पड़ा हमें 'रहबर' हमारे वास्ते मंज़िल नहीं चली मंज़िल की सम्त चल के ख़ुद आना पड़ा हमें