ख़ुद को किसी की राह-गुज़र किस लिए करें तू हम-सफ़र नहीं तो सफ़र किस लिए करें जब तू ने ही निगाह में रक्खा नहीं हमें अब और किसी के ज़ेहन में घर किस लिए करें क्यूँ तुझ को याद कर के गंवाएँ हसीन शाम पलकों को तेरे नाम पे तर किस लिए करें मंसूब-ए-जाँ हो और कोई पैकर-ए-ख़याल कर सकते हैं ये काम मगर किस लिए करें क्यूँ छोड़ दें न शाम से पहले ही तेरा शहर तुझ से बिछड़ के रात बसर किस लिए करें किस के लिए चराग़ जलाएँ तमाम रात 'नासिक' फिर एहतिमाम-ए-सहर किस लिए करें