ये किस के आसमाँ की हदों में छुपा हूँ मैं अपनी ज़मीं से उठ के कहाँ आ गया हूँ मैं बादल में छुप गया है जो सूरज तू ही तो था जो जल रहा है घर में वो रौशन दिया हूँ मैं जाएगा तू जहाँ भी रहूँगा मैं तेरे साथ तू अब्र-ए-बे-नयाज़ तो बहती हवा हूँ मैं रह कर भी हर मक़ाम पे दिखता नहीं है क्यूँ कब ख़ुद को अपने-आप में आख़िर मिला हूँ मैं तेरे अज़ल अबद के किनारों के दरमियाँ करती है बाज़गश्त जो ऐसी सदा हूँ मैं फिर यूँ हुआ कि रौशनी हद से सिवा हुई ख़ुर्शीद-ए-ज़ौ-फ़िशार था देखो बुझा हूँ मैं होता ज़फ़र क़रार जो नश्तर नहीं हुआ 'जावेद' दश्त-ए-शेर में बे-दस्त-ओ-पा हूँ मैं