ख़ुद को समेटने में थी इतनी अगर-मगर बिखरा पड़ा हूँ आज भी तेरे इधर-उधर अपनी कमी से कह दो कि शिद्दत से तो रहे देखो कि रह न जाए कहीं कुछ कसर-वसर इक रोज़ तुम भी तो ज़रा ख़ुद से निकल मिलो तय कर लिए हैं मैं ने तो सारे सफ़र-वफ़र नफ़रत तिरी या प्यार हो ग़म हो शराब हो मुमकिन नहीं है थोड़े में अपनी गुज़र-बसर तू क्या गई मैं हो गया हूँ सख़्त-जान माँ लगती नहीं है अब तो मुझे कुछ नज़र-वज़र मुद्दत से कुछ भी तो तेरी चलती नहीं ख़ुदा रक्खा तू कर जहान की भी कुछ ख़बर-वबर बस इश्क़ का है मारा तो कुछ शे'र कह दिए वर्ना है ‘आश्ना’ में कहाँ कुछ हुनर-वुनर