ख़ुद नज़ारों पे नज़ारों को हँसी आती है बाग़बानों पे बहारों को हँसी आती है अब ये क्यूँ ज़िक्र-ए-बहाराँ पे चमन में अक्सर फूल तो फूल हैं ख़ारों को हँसी आती है मेहर-ओ-इख़्लास की दुनिया में ये क्या बात हुई आज यारों ही पे यारों को हँसी आती है ऐसी बे-जान सी है मेरे हरीफ़ों की हँसी जैसे तूफ़ाँ पे किनारों को हँसी आती है क्या करे आह वो बेचारा मुसाफ़िर जिस पर आप की राह-गुज़ारों को हँसी आती है कोई जब चाँद सितारों से हो मसरूफ़-ए-सुख़न किस क़दर चाँद सितारों को हँसी आती है ख़ैर हो ख़ैर मशिय्यत के इरादों की क़सम आज तक़दीर के मारों को हँसी आती है हाए किस मोड़ पे आया है अब अफ़्साना-ए-ग़म मेरे अफ़्साना-निगारों को हँसी आती है हम हैं महरूम-ए-मसर्रत तो कोई बात नहीं ये भी क्या कम है सहारों को हँसी आती है गर्दिश-ए-वक़्त ने क्या फिर कोई सूरत बदली या यूँही वक़्त-गुज़ारों को हँसी आती है शायद 'अख़्गर' ही की तौबा की ख़बर है यारो आज साक़ी के इशारों को हँसी आती है