ख़ुद से बिछड़ के ज़ात के पैकर में क़ैद हूँ घर से निकल गया था मगर घर में क़ैद हूँ हूँ ना'रा-ए-जिहाद भी अज़्म-ए-जवान भी दिल में कभी मुक़ीम था अब सर में क़ैद हूँ मुश्ताक़-ओ-मुंतज़िर हूँ कि चिंगारियाँ मिलें क्या ख़ूब आग हो के भी पत्थर में क़ैद हूँ देखो तो काएनात दिखाई दे ज़ेर-ए-पा सोचूँ तो जैसे ख़ुद ही समुंदर में क़ैद हूँ वो तो बुला रहे हैं मगर ऐ 'नरेश' मैं अपनी अना के गुम्बद-ए-बे-दर में क़ैद हूँ