कोई हैरान है याँ कोई दिल-गीर कहे तू है ये आलम बज़्म-ए-तस्वीर जले तक का मैं अपने क़द्र-दाँ हूँ ये चुटकी राख है इक-तुर्फ़ा इक्सीर निगाह-ए-इज्ज़ कुछ कुछ कारगर थी सो अब जाती रही उस की भी तासीर वो दिन क्या बा-हलावत थे कि अहबाब मुआफ़िक़ थे बहम जूँ शक्कर-ओ-शीर करूँ क्यूँकर न मैं 'रासिख़' मबाहात कि हैं उस्ताद मेरे हज़रत-ए-'मीर'