ख़ुद से मैं बे-यक़ीं हुआ ही नहीं आसमाँ था ज़मीं हुआ ही नहीं इश्क़ कहते हैं सब जिसे हम से वो गुनाह-ए-हसीं हुआ ही नहीं वस्ल भी उस का उस के जैसा था जो गुमाँ से यक़ीं हुआ ही नहीं ख़ाना-ए-दिल सरा की सूरत है कोई इस में मकीं हुआ ही नहीं लाख चाहा मगर सुख़न मेरा क़ाबिल-ए-आफ़रीं हुआ ही नहीं मैं भी ख़ुद को सँवारता 'मोहसिन' आइना नुक्ता-चीं हुआ ही नहीं