ख़ुदा का शुक्र है गिर्दाब से निकल आया मैं उस के हल्क़ा-ए-अहबाब से निकल आया सजी हुई थीं दुकानें मुनाफ़िक़त की जहाँ मैं ऐसे क़र्या-ए-बे-ख़्वाब से निकल आया बहुत दिनों से हिसार-ए-तिलिस्म-ए-ख़्वाब में था तिलिस्म टूट गया ख़्वाब से निकल आया अता हुई है मोहब्बत की सल्तनत जब से मैं शहर-ए-दीदा-ए-ख़ूँ-नाब से निकल आया कभी गुलाब से आने लगी महक उस की कभी वो अंजुम ओ महताब से निकल आया अना की नाव जहाँ डोलती फिरे 'महबूब' मैं उस फ़रेब के सैलाब से निकल आया