ख़ुदा की मुझ पे नुसरत हो रही है ग़ज़ल कहने पे क़ुदरत हो रही है जिसे देखो वही तलवार सा है मोहब्बत अब ग़नीमत हो रही है दुआ दे कर गया था एक साइल मिरी रोटी में बरकत हो रही है सिला बस ये मिला तर्क-ए-वतन का हमारी घर में वक़अत हो रही है वो सब से मिल रहा है इतना झुक कर जहाँ जितनी ज़रूरत हो रही है गुल-ओ-गुलज़ार शो'ले हो रहे हैं हक़ीक़त महव-ए-हैरत हो रही है 'क़लक़' लब पर तबस्सुम दिल में कीना पस-ए-उल्फ़त अदावत हो रही है