कोशिश मुसालहत की तो लैल-ओ-नहार की हर लम्हा कैफ़ियत है मगर इंतिशार की गुजरात दिल है गर मिरा कश्मीर है क़लम लिखता हूँ दास्तान बदन के चिनार की अक़्ल-ओ-ख़िरद हमारे न कुछ काम आ सके जोश-ए-जुनूँ ने आबरू रख ली है दार की सब मरहले तमाम हुए जीत के मगर बे-मेहरी-ए-रफ़ीक़ हुई वजह हार की साँसों पे इख़्तियार न दुनिया का ए'तिबार फ़ितरत यही है आलम-ए-ना-पाएदार की पलकें बिछाऊँ राहों में ये आजिज़ी नहीं मीज़ान ये नहीं है 'क़लक़' इंकिसार की