ख़ुदा शाहिद बुतो दो-जग से ये सौदा है निर्वाला मैं दो बादाम-ए-चश्म-ए-लुत्फ़ पर दिल बेचने वाला दोनो आलम से मशरब मस्त-ए-वहदत का है निर्वाला मिरे एक हाथ में तस्बीह है इक हाथ में प्याला नहीं इस साल वो ख़ूनीं-नयन भूरे अलक वाला लगो लाला को आग और हो जो ना-फ़रमाँ का मुँह काला वो शीरीं-लब का बोसा क्यूँके छोड़े मुझ सा मतवाला कि जूँ लाला बिछड़ते उस दहन से दाग़ हो पाला नहीं फ़ारिग़ मैं बा'द-अज़-मर्ग भी सोज़-ए-मोहब्बत से मिरा ख़ूँ दामन-ए-क़ातिल में होगा दाग़ जूँ लाला वो ना-फ़रमाँ बना ख़ून-ए-जिगर से मय न पी उज़्लत कबाब-ए-दिल की बू आती है हर प्याले से जूँ लाला