ख़ुदा उसे भी किसी दिन ज़वाल देता है ज़माना जिस के हुनर की मिसाल देता है वो जब शुऊ'र को लफ़्ज़ों में ढाल देता है अजीब सोच निराले ख़याल देता है कोई समझ न सका उस की देन का अंदाज़ा कभी ख़ुशी कभी रंज-ओ-मलाल देता है कभी वो ज़ख़्म लगाता है मेरे सीने पर कभी वो पाँव से काँटा निकाल देता है उसी ने दी है गुनाह-ओ-सवाब की तफ़रीक़ वही शुऊ'र-ए-हराम-ओ-हलाल देता है मिरे ख़ुदा उसे संजीदगी अता कर दे वो मेरी बात को हँस हँस के टाल देता है कभी किनारे भी कश्ती बचा नहीं सकते कभी भँवर भी सफ़ीने उछाल देता है वो कर गुज़रता है अक्सर मिरा जुनूँ 'एजाज़' कि जो ख़िरद को भी हैरत में डाल देता है