तिरी आवाज़ में भी कोई आवाज़ा नहीं होता तिरी बातों से अब तो कोई अंदाज़ा नहीं होता कभी बैठक तिरी दोपहर में आबाद रहती थी खुला अब शाम को भी घर का दरवाज़ा नहीं होता कभी वो इक इशारे से समझ जाता था सारी बात जतन करने से भी अब उस को अंदाज़ा नहीं होता बहुत ही बन-सँवर कर आज-कल घर से निकलता है मगर ये क्या कि वो चेहरा तर-ओ-ताज़ा नहीं होता कभी दुख आ के रहते हैं कभी सुख आ के रहते हैं किसी पर बंद अपने घर का दरवाज़ा नहीं होता मिरे बारे में वो क्या सोचता है मूड कैसा है अब उस से शाम को भी मिल के अंदाज़ा नहीं होता