ख़ुदाया इश्क़ में अच्छी ये शर्त-ए-इम्तिहाँ रख दी लगा कर मोहर-ए-ख़ामोशी मिरे मुँह में ज़बाँ रख दी जो पूछो दिल से शय तुम ने कहाँ ऐ मेहरबाँ रख दी बड़ी नख़वत से कहते हैं जहाँ चाही वहाँ रख दी किसी के जौर-ए-बेहद पर भी जब ख़ामोश रहना था तो फिर क्यूँ ऐ ख़ुदा तू ने मिरे मुँह में ज़बाँ रख दी मोहब्बत का निशाँ तक भी ज़माने में नहीं मिलता उठा कर चीज़ ये ऐ आसमाँ तू ने कहाँ रख दी कहाँ तक हादसात-ए-बर्क़-ओ-बाराँ से रहूँ ख़ाइफ़ ख़ुदा का नाम ले कर मैं ने तरह-ए-आशियाँ रख दी