ख़ुदाया काश तुझी को गवाह कर लेते निगाह-ए-ख़ल्क़ से बच कर गुनाह कर लेते हयात ख़ुद ही मिरे दर्द की पासबाँ होती उरूस-ए-मर्ग से इक दिन जो चाह कर लेते फ़लक न रहता न रू-ए-ज़मीं की रंगीनी तुम्हारे जौर-ओ-सितम पर जो आह कर लेते न करते जब्र किसी पर भी लोग फिर शायद जो इख़्तियार पे अपने निगाह कर लेते गदागरी के तो इल्ज़ाम से बचे रहते हम अपने सर पे अगर कज-कुलाह कर लेते हमारी फ़िक्र का थोड़ा सा तो सिला मिलता जो अहल-ए-बज़्म ही कुछ वाह वाह कर लेते निबाह लेते ज़माने से हम भी मर-खप कर जो आप 'असर' के दिल में न राह कर लेते