टूट कर इश्क़ किया है भी नहीं भी शायद मुझ से ये काम हुआ है भी नहीं भी शायद ऐ मिरी आँख की दहलीज़ पे दम तोड़ते ख़्वाब मुझ को अफ़्सोस तिरा है भी नहीं भी शायद मेरी आँखों में है वीरानी भी शादाबी भी ख़्वाब का पेड़ हरा है भी नहीं भी शायद दिल में तश्कीक हुई तुझ को न छू कर क्या क्या ऐसे तक़वे की जज़ा है भी नहीं भी शायद मैं हूँ जिस अहद-ए-पुर-आशोब में ज़िंदा 'सय्यद' इस में अब होना मिरा है भी नहीं भी शायद