ख़ुद्दारी-ए-हयात को रुस्वा नहीं किया हम ने कभी ज़मीर का सौदा नहीं किया जाँ से अज़ीज़ था हमें दस्तार का वक़ार ज़ालिम को सर तो दे दिया सज्दा नहीं किया फिर लब पे तेरे कलमा-ए-अफ़्सोस किस लिए मैं ने तो तेरे जब्र का शिकवा नहीं किया मंडला रहा है आज जो साहिल के इर्द-गर्द तूफ़ान को तो तुम ने इशारा नहीं किया उस के रुख़-ए-जमील के आए जो रू-ब-रू महताब ऐसा चर्ख़ ने पैदा नहीं किया गरचे मिरे क़लम के ख़रीदार कम न थे मेरे ज़मीर ही ने गवारा नहीं किया