ख़ुद-शनासी ही ख़ुद-परस्ती है इक मुअ'म्मा बशर की हस्ती है जान देते हैं लोग बातिल पर कैसा अंदाज़-ए-हक़-परस्ती है आज मर-मर के जी रहे हैं लोग कितना दिलचस्प ख़्वाब-ए-हस्ती है मुफ़्लिसी बढ़ गई है इस दर्जा मौत को ज़िंदगी तरसती है अब ये हालत हुई है ऐ 'इक़बाल' ज़िंदगी मौत को तरसती है