ख़ौफ़ सा फिर लबों पे तारी है इक अजब कैफ़ियत हमारी है आओ बदलें निज़ाम-ए-गुलशन हम कुछ हमारी भी ज़िम्मेदारी है रौशनी हक़ के एक जुगनू की सैंकड़ों ज़ुल्मतों पे भारी है आप का तो कोई जवाब नहीं आइए अब हमारी बारी है जश्न-ए-तदफ़ीन-ए-आरज़ू-ए-विसाल और साँसों का रक़्स जारी है वस्ल का एक क़ीमती लम्हा हिज्र की मुद्दतों पे भारी है वहशत-ए-इश्क़ में सुनो हम ने दिन समेटा है शब उतारी है क़हक़हों का नगर तुम्हें सौंपा दर्द पर सल्तनत हमारी है ग़लतियाँ आप से नहीं होतीं क्या फ़रिश्तों से रिश्ता-दारी है आप सुनिए 'शहाब' को भी कभी गोया इल्हाम-ए-रब्त जारी है