ख़ौफ़ वर्ना तो किस के बस का है शहर को हादसों का चसका है वर्ना हम जिस्म तक भी आ जाते मसअला रूह की हवस का है आदमी तो ख़ुदा के बस का नहीं पर ख़ुदा आदमी के बस का है इक ज़रूरत है उस के पहलू में और बदन सब की दस्तरस का है मुंदमिल ज़ख़्म रिसता रहता है शाइबा दाग़ पर भी पस का है इश्क़ सहरा नहीं बगूला है और सफ़र रेत के क़फ़स का है