ख़ुलूस ईसार पारसाई हया सदाक़त हिजाब लिख्खूँ मैं लफ़्ज़ पानी के ढूँड लाऊँ तो बर्फ़ की ये किताब लिख्खूँ न मैं हूँ गुलचीं न बाग़बाँ हूँ मैं इस गुलिस्ताँ का मोहतसिब हूँ ज़रा मैं काँटे शुमार कर लूँ तो पर गुलों का हिसाब लिख्खूँ मिटे मिटे से हुरूफ़ ख़त के न जाने क्या क्या सुना रहे हैं मैं आँसूओं की ज़बाँ समझ लूँ तो तेरे ख़त का जवाब लिख्खूँ महकता पैकर हसीन रंगत ये मस्त आँखें झुकी झुकी सी बता तुझे मैं गुलाब लिख्खूँ नशा लिख्खूँ या शराब लिख्खूँ बता ये तू ही इन आँसूओं से मैं ज़िंदगी के लिखूँ मसाइल कि तेरे चेहरे के ख़ूबसूरत नुक़ूश पर इक किताब लिख्खूँ जो भीगी पलकों से तुम ने इक दिन वफ़ा के वा'दे किए थे मुझ से तुम्हीं बताओ कि अब मैं उन को सराब लिख्खूँ कि ख़्वाब लिख्खूँ सहर के सर हैं न जाने कितनी अँधेरी रातों के क़र्ज़ 'आमिर' धुएँ चराग़ों के दें इजाज़त तो रौशनी का हिसाब लिख्खूँ