ख़ुमार-ए-शब में तिरा नाम लब पे आया क्यूँ नशे में और भी थे मैं ही लड़खड़ाया क्यूँ मैं अपने शहर की हर रहगुज़र से पूछता हूँ पड़ा हुआ है यहीं वहशतों का साया क्यूँ कोई तो दर्द है ऐसा जो खींचता है उसे मिरे ही दिल की तरफ़ लौट कर वो आया क्यूँ किसी निगाह का मैं हुस्न-ए-इंतिख़ाब न था तो ज़िंदगी ने मुझे ही फिर आज़माया क्यूँ किसी दिए से गिला भी करें तो कैसे करें पराए घर की मुंडेरों पे जगमगाया क्यूँ मुझे सँभाल के रखना था ऐ निगार-ए-वतन गली गली में लहू की तरह बहाया क्यूँ मैं गिर पड़ा था कहीं बेबसी के आलम में मुझे उठा के किसी ने गले लगाया क्यूँ