ख़ुनुक हवा का ये झोंका शरार कैसे हुआ ये मेरा शहर दुखों का दयार कैसे हुआ बुझे बुझे थे बहुत नक़्श जब कि मौसम के लहू के रंग का उन पे निखार कैसे हुआ बना हूँ जिस से ख़ता-कार सब की आँखों में वो जुर्म मुझ से बता बार बार कैसे हुआ मिला न जिस को बुलावा कभी समुंदर का वो शख़्स मौज-ए-बला का शिकार कैसे हुआ ब-शक्ल-ए-उम्र मिली भीक जिस से लम्हों की वो वक़्त मेरे लिए बे-कनार कैसे हुआ वो जिस्म जिस पे बहुत नाज़ था तुझे 'फ़िक्री' वो जिस्म दश्त-ए-फ़ना का ग़ुबार कैसे हुआ