ख़ुश-फ़हमियों को दर्द का रिश्ता अज़ीज़ था काग़ज़ की नाव थी जिसे दरिया अज़ीज़ था ऐ तंगी-ए-दयार-ए-तमन्ना बता मुझे वो पाँव क्या हुए जिन्हें सहरा अज़ीज़ था पूछो न कुछ कि शहर में तुम हो नए नए इक दिन मुझे भी सैर ओ तमाशा अज़ीज़ था बे-आस इंतिज़ार ओ तवक़्क़ो बग़ैर शक अब तुम से क्या कहें हमें क्या क्या अज़ीज़ था वादा-ख़िलाफ़ियों पे था शिकवों का इंहिसार झूटा सही मगर मुझे वादा अज़ीज़ था इक रस्म-ए-बेवफ़ाई थी वो भी हुई तमाम वो यार-ए-बेवफ़ा मुझे कितना अज़ीज़ था यादें मुझे न जुर्म-ए-तअल्लुक़ की दें सज़ा मेरा कोई न मैं ही किसी का अज़ीज़ था