ख़ुशी भी किस ने कहा वज्ह-ए-ग़म नहीं होती बता वो शाम जो शाम-ए-अलम नहीं होती हम उस जगह पे किराए के घर में रहते हैं हमारी राय कभी मोहतरम नहीं होती तिरे ख़याल के आते ही लौटने से लगा हर एक चीज़ उदासी में ज़म नहीं होती झुके हुए हैं ये सर तो किसी मुसीबत में ये इक फ़क़ीर की गर्दन है ख़म नहीं होती जो तेरे साथ मोहब्बत थी मर गई है वो मगर जो तुझ से अक़ीदत है कम नहीं होती मैं अपने दुख में बराबर शरीक हूँ लेकिन बस एक मसअला है आँख नम नहीं होती बता रही हैं परिंदों की हिजरतें 'साहिर' कोई तबाही कभी एक दम नहीं होती