ख़ुशी की बात है या दुख का मंज़र देख सकती हूँ तिरी आवाज़ का चेहरा मैं छू कर देख सकती हूँ अभी तेरे लबों पे ज़िक्र-ए-फ़स्ल-ए-गुल नहीं आया मगर इक फूल खिलते अपने अंदर देख सकती हूँ मुझे तेरी मोहब्बत ने अजब इक रौशनी बख़्शी मैं इस दुनिया को अब पहले से बेहतर देख सकती हूँ किनारा ढूँडने की चाह तक मुझ में नहीं होगी मैं अपने घर में इक ऐसा समुंदर देख सकती हूँ विसाल-ओ-हिज्र अब यकसाँ हैं वो मंज़िल है चाहत में मैं आँखें बंद कर के तुझ को अक्सर देख सकती हूँ अभी तेरे सिवा दुनिया भी है मौजूद इस दिल में मैं ख़ुद को किस तरह तेरे बराबर देख सकती हूँ