ख़ुशी न मिल सकी आँखें मिरी पुर-आब रहीं ख़याल-ओ-ख़्वाब की बातें ख़याल-ओ-ख़्वाब रहीं सहर हुई न मिरे शहर-ए-आरज़ू में कभी कि मेहर-ए-हुस्न की किरनें पस-ए-नक़ाब रहीं उन्ही के दम से है क़ाएम वक़ार-ए-सज्दा-ए-शुक्र वो लोग जिन की सदा क़िस्मतें ख़राब रहीं किसी ने भी दर-ए-एहसास अपना वा न किया दुखे दिलों की सदाएँ न कामयाब रहीं सुकूँ से रहते हैं किस तरह लोग दुनिया में मिरे लिए तो ये साँसें भी इक अज़ाब रहीं रह-ए-वफ़ा में निगाहों से हो गईं ओझल जो सूरतें मिरी आँखों का इंतिख़ाब रहीं बसे हुए हैं मिरे ख़्वाब जिन में ऐ 'आबिद' वो बस्तियाँ तो हमेशा ही ज़ेर-ए-आब रहीं