ख़ुश्क आँखों की कहानी दश्त दश्त अपनी ही थी नम हवाओं में सदा-ए-बाज़गश्त अपनी ही थी ढूँडते फिरते रहे थे साया साया ज़िंदगी धूप की गलियों में सुब्ह-ओ-शाम गश्त अपनी ही थी जागती रहती थीं आँखें ख़ाना ख़ाना ख़ौफ़ ख़ौफ़ ख़्वाब की रौशन-नुमाई तश्त तश्त अपनी ही थी जंगलों से शहर तक शाना-ब-शाना पुश्त पुश्त सिलसिला करती हुई वो सर-गुज़श्त अपनी ही थी मेरी ख़ुश-तबई न थी रू-ए-ग़रीब-ए-शहर हाँ शहर-यारों में मुज़व्वज ख़ू-ए-ज़श्त अपनी ही थी करते थे 'परवेज़' 'रहमानी' उजाले गुल-कशीद शब-गिरफ़्ता वादियों में ख़ार-गश्त अपनी ही थी