ख़ुश-नवाई तेरे नैरंग से डर लगता है मर्हबा सुनिए तो आहंग से डर लगता है हो खरा बाँट तो तुलने से नहीं कोई गुरेज़ हाँ मगर जुम्बिश-ए-पासंग से डर लगता है मस्लहत का ये कफ़न रखता है बे-दाग़ हमें अहल-ए-ईमान हैं हम-रंग से डर लगता है हम जो तलवार उठा लें तो क़यामत आ जाए हाँ मगर ये कि हमें जंग से डर लगता है फ़ासला दिल का है दुनिया से महज़ इक फ़रसंग और हमें बस उसी फ़रसंग से डर लगता है डर नहीं लगता किसी ख़्वाब से हम को लेकिन उस की ता'बीर की फ़रहंग से डर लगता है आहनी अज़्म हों पर आँख भी नम है मेरी भीगे मौसम में मुझे ज़ंग से डर लगता है सर को दीवार से महफ़ूज़ रखा है प 'नसीम' अपनी मुट्ठी में छुपे संग से डर लगता है