ख़्वाब जब से इक हसीना के नज़र आने लगे मौलवी साहब भी ब्यूटी पार्लर जाने लगे हम को थी उन से मोहब्बत वो भी थे हम पर फ़िदा बात सीधी थी मगर कुछ लोग उलझाने लगे नीम के बूटे पे वो क्या चढ़ गए कि शैख़ जी शिद्दत-ए-जज़्बात में निमबोलियाँ खाने लगे उस की खटिया कब खड़ी हो जाए कह सकते नहीं आशिक़ी का जिस के सर पर भूत मंडराने लगे मुफ़्त की पी कर कही थी एक दिन हम ने ग़ज़ल शेर उठ उठ कर चचा ग़ालिब से टकराने लगे बा-तरन्नुम हम ने बस मतला पढ़ा था बज़्म में लोग जो आए अभी थे वो भी घर जाने लगे यूँ किसी से कम न थे हाज़िर-जवाबी में मगर वो हुए जब सामने 'मसरूर' हकलाने लगे