ख़्वाब का चेहरा पीला पड़ते देखा है इक ताबीर को सूली चढ़ते देखा है इक तस्वीर जो आईने में देखी थी उस का इक इक नक़्श बिगड़ते देखा है सुब्ह से ले कर शाम तलक उन आँखों ने अपने ही साए को बढ़ते देखा है उस से हाल छुपाना तो है ना-मुम्किन हम ने उस को आँखें पढ़ते देखा है अश्क-ए-रवाँ रखना ही अच्छा है वर्ना तालाबों का पानी सड़ते देखा है इक उम्मीद को हम ने अक्सर ख़ल्वत में एक अधूरी मूरत गढ़ते देखा है दिल में कोई है जिस को अक्सर हम ने हर इल्ज़ाम हमीं पर मढ़ते देखा है