ख़्वाह पत्थर ख़्वाह शीशा आदमी रेज़ा रेज़ा हो के बिखरा आदमी लम्हा लम्हा धूप से तप कर हुआ दश्त-ए-ग़ुर्बत में सुनहरा आदमी इक नई तख़्लीक़ का सूरज लिए फ़िक्र के ज़ीने से उतरा आदमी ज़िंदगी के आईने में रोज़-ओ-शब देखता है अपना चेहरा आदमी भर के आँखों में सुलगती आरज़ू बर्फ़ की वादी से गुज़रा आदमी उम्र भर करता नहीं फ़ाश अपना राज़ किस क़दर होता है गहरा आदमी साअ'त ऐसी भी कभी आती है 'नाज़' ख़ुद भी बन जाता है बहरा आदमी